उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
एक लड़के ने कहा– ‘आये तो थे, शायद बाहर चले गये हों।’’
‘क्या फ़ीस नहीं लाया है?’
किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।
अध्यापक की मुद्रां पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले– ‘शायद फ़ीस लाने गया होगा। इस घंटे में न आया, तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अख़्तियार है। दूसरा लड़का चले–गोबर्धनदास!’
सहसा एक लड़के ने पूछा– ‘अगर आपकी इज़ाज़त हो तो मैं बाहर जाकर देखूँ।’ अध्यापक ने मुस्कराकर कहा– ‘घर की याद आयी होगी। ख़ैर जाओ; मगर दस मिनट के अन्दर आ जाना। लड़कों को बुला-बुला कर फ़ीस लेना मेरा काम नहीं है।’
लड़के ने नम्रता से कहा– ‘अभी आता हूँ।’ क़सम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊँ।’
यह इस कक्षा के सम्पन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाज़। हाज़िरी देकर ग़ायब हो जाता, तो शाम की ख़बर लाता। हर महीने फ़ीस की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लम्बा, छरहरा, शौक़ीन युवक था जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।
सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने या तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी क़ापी से नक़ल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गयी थी। सलीम कवि था। अमरकान्त उसकी गज़लें बड़े चाव से सुनता था। मैत्री का यह एक और कारण था।
सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह, दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। ज़रा आगे बढ़ा, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है। पुकारा– ‘अमरकान्त! ओ बुद्धूलाल! चलो, फ़ीस जमा करो, पंडितजी बिगड़ रहे हैं।’
अमरकान्त ने अचकन के दामन से आँखें पोंछ लीं और सलीम की तरफ़ आता हुआ बोला– ‘क्या मेरा नम्बर आ गया?’
सलीम ने उसके मुँह की तरफ़ देखा, तो आँखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो! चौंककर बोला– ‘अरे तुम रो रहे हो! क्या बात है?’
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